योऽमित्रं कुरुते मित्रं वीर्याऽभ्यधिकमात्मनः। स करोति न सन्देहः स्वयं हि विषभक्षणम्।।
अपने से अधिक बलशाली शत्रु को मित्र बनाने से अपना ही नाश होता है।
एक कुएँ में गंगदत्त नाम का मेढक रहता था।
वह अपने मेढक दल का सरदार था।
अपने बन्धु-बान्धवों के व्यवहार से खिन्न होकर वह एक दिन कुएँ से बाहर निकल आया।
बाहर आकर वह सोचने लगा कि किस तरह उनके बुरे व्यवहार का बदला ले।
यह सोचते-सोचते वह एक सर्प के बिल के द्वार तक पहुँचा।
उस बिल में एक काला नाग रहता था। उसे देखकर उसके मन में यह विचार उठा कि इस नाग द्वारा अपनी बिरादरी के मेढकों का नाश करवा दे।
शत्रु से शत्रु का वध करवाना ही नीति है। काँटे से ही काँटा निकाला जाता है। यह सोचकर वह बिल में घुस गया।
बिल में रहनेवाले नाग का नाम था प्रियदर्शन। गंगदत्त उसे पुकारने लगा।
प्रियदर्शन ने सोचा, यह साँप की आवाज़ नहीं है; तब कौन मुझे बुला रहा है ?
किसी के कुल-शील से परिचय पाए बिना उसके संग नहीं जाना चाहिए।
कहीं कोई सपेरा ही उसे बुलाकर पकड़ने के लिए न आया हो।
अतः अपने बिल के अन्दर से ही उसने आवाज़ दी-कौन है, जो मुझे बुला रहा है ?
गंगदत्त ने कहा-मैं गंगदत्त मेढक हूँ।
तेरे द्वार पर तुझसे मैत्री करने आया हूँ।
यह सुनकर साँप ने कहा-यह बात विश्वास--योग्य नहीं हो सकती।
आग और घास में मैत्री नहीं हो सकती।
भोजन-भोज्य में प्रेम कैसा ?
वधिक और वध्य में स्वप्न में भी मित्रता असम्भव है।
गंगदत्त ने उत्तर दिया-तेरा कहना सच है।
यह परस्पर स्वभाव से वैरी है, किन्तु मैं अपने स्वजनों से अपमानित होकर प्रतिकार की भावना से तेरे पास आया हूँ।
प्रियदर्शन-तू कहाँ रहता है ?
गंगदत्त-कुएँ में।
प्रियदर्शन-पत्थर से चुने कुएँ में मेरा प्रवेश कैसे होगा ? प्रवेश होने के बाद मैं वहाँ बिल कैसे बनाऊँगा ?
गंगदत्त-इसका प्रबन्ध मैं कर दूंगा। वहाँ पहले ही बिल बना हुआ तू बिना कष्ट सब मेढकों का नाश कर सकता है। है।
वहाँ बैठकर प्रियदर्शन बूढ़ा साँप था। उसने सोचा, बुढ़ापे में बिना कष्ट भोजन मिलने का अवसर नहीं छोड़ना चाहिए।
गंगदत्त के पीछे-पीछे वह कुएँ में उतर गया।
वहाँ उसने धीरे-धीरे गंगदत्त के वे सब भाई-बन्धु खा डाले, जिनसे गंगदत्त का वैर था।
जब ऐसे सब मेढक समाप्त हो गए तो वह बोला-मित्र! तेरे शत्रुओं का तो मैंने नाश कर दिया।
अब कोई भी ऐसे मेढक शेष नहीं रहा जो तेरा शत्रु हो। मेरा पेट अब कैसे भरेगा!
तू ही मुझे यहाँ लाया था; तू ही मेरे भोजन की व्यवस्था कर।
गंगदत्त ने उत्तर दिया-प्रियदर्शन, अब मैं तुझे तेरे बिल तक पहुंचा मैं देता हूँ।
जिस मार्ग से हम आए थे, उसी मार्ग से बाहर निकल चलते हैं।
प्रियदर्शन-यह कैसे सम्भव है! उस बिल पर तो अब दूसरे साँप का अधिकार हो चुका होगा।
गंगदत्त-फिर क्या किया जाए ?
प्रियदर्शन-अभी तक तूने मुझे अपने शत्रु मेढकों को भोजन के लिए दिया है।
अब दूसरे मेढकों में से एक-एक करके मुझे देता जा; अन्यथा मैं सबको एक ही बार खा जाऊँगा।
गंगदत्त अब अपने किए पर पछताने लगा। जो अपने से अधिक बलशाली शत्रु को मित्र बनाता है, उसकी यही दशा होती है।
बहुत सोचने के बाद उसने निश्चय किया कि वह शेष रह गए मेढकों में से एक-एक को साँप का भोजन बनाता रहेगा।
सर्वनाश के अवसर पर आधे को बचा लेने में ही बुद्धिमानी है।
सर्वस्व-हरण के समय अल्पदान करना ही दूरदर्शिता है।
दूसरे दिन से साँप ने दूसरे मेढकों को भी खाना शुरू कर दिया। वे भी शीघ्र ही समाप्त हो गए।
अन्त में एक दिन साँप ने गंगदत्त के पुत्र यमुनादत्त को भी खा लिया।
गंगदत्त अपने पुत्र की हत्या पर रो उठा। उसे रोता देखकर उसकी पत्नी ने कहा-अब रोने से क्या होगा ?
अपने जातीय भाईयों का नाश करनेवाला स्वयं भी नष्ट हो जाता है। अपने ही जब नहीं रहेंगे, तो कौन हमारी रक्षा करेगा ?
अगले दिन प्रियदर्शन ने गंगदत्त को बुलाकर फिर कहा कि मैं भूखा हूँ।
मेढक तो सभी समाप्त हो गए। अब तू मेरे भोजन का कोई और प्रबन्ध कर।
गंगदत्त को एक उपाय सूझ गया। उसने कुछ देर विचार करने के बाद कहा-प्रिदर्शन! यहाँ के मेढक तो समाप्त हो गए; अब मैं दूसरे कुओं से मेढकों को बुलाकर तेरे पास लाता हूँ।
तू मेरी प्रतीक्षा करना।
प्रियदर्शन को यह युक्ति समझ आ गई।
उसने गंगदत्त को कहा-तू मेरा भाई है, इसीलिए मैं तुझे नहीं खाता।
यदि तू दूसरे मेढकों को बुला तू मेरे पिता-समान पूज्य हो जाएगा। लाएगा तो
गंगदत्त अवसर पाकर कुएँ से निकल गया। प्रियदर्शन प्रतिक्षण उसकी प्रतीक्षा में बैठा रहा।
बहुत दिन तक भी जब गंगदत्त वापस नहीं आया तो साँप ने अपने पड़ोस के बिल में रहनेवाली गोह से कहा कि तू मेरी सहायता कर।
बाहर जाकर गंगदत्त को खोजना और उसे कहना कि यदि दूसरे मेढक नहीं आते तो भी वह आ जाए।
उसके बिना मेरा मन नहीं लगता।
गोह ने बाहर निकलकर गंगदत्त को खोज लिया। उससे भेंट होने पर वह बोली-गंगदत्त! तेरा मित्र प्रियदर्शन तेरी राह देख रहा है।
चल, उसके मन को धीरज बँधा।
वह तेरे बिना बहुत दुःखी है।
गंगदत्त ने गोह से कहा-नहीं, मैं अब नहीं जाऊँगा।
संसार में भूखे का कोई भरोसा नहीं, ओछे आदमी प्रायः निर्दय हो जाते हैं।
प्रियदर्शन को कहना कि गंगदत्त अब वापस नहीं आएगा।
गोह वापस चली गई।
यह कहानी सुनाने के बाद बन्दर ने मगरमच्छ से कहा कि मैं भी गंगदत्त की तरह वापस नहीं जाऊँगा।
मगरमच्छ बोला-मित्र! यह उचित नहीं है, मैं तेरा सत्कार करके कृतघ्नता का प्रायश्चित्त करना चाहता हूँ।
यदि तू मेरे साथ नहीं जाएगा तो मैं यहीं भूख से प्राण दे दूंगा।
बन्दर बोला-मित्र! यह उचित नहीं है, मैं तेरा सत्कार करके कृतघ्नता का प्रायश्चित्त करना चाहता हूँ।
यदि तू मेरे साथ नहीं जाएगा तो मैं यहीं भूख से प्राण दे दूंगा।
बन्दर बोला-मूर्ख, क्या मैं लम्बकर्ण जैसा मूर्ख हूँ, जो स्वयं मौत के मुख में जा पडूंगा।
वह गधा शेर को देखकर वापस चला गया था, लेकिन फिर उसके पास आ गया। |