जय गुरु देव
समय का जगाया हुआ नाम जयगुरुदेव मुसीबत में बोलने से जान माल की रक्षा होगी ।
परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज, उज्जैन (मध्य प्रदेश)
भक्त नरसी मेहता की कथा (Bhakt Narase Mehata Ki Katha)

भक्त नरसी मेहता के पिता का नाम था कृष्ण दामोदरदास तथा माता का नाम था लक्ष्मीगौरी। उनके एक और बडे भाई थे, जिनका नाम था वंशीधर। अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसी मेहता की उम्र 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता-पिता का देहान्त हो गया और उसके बाद नरसी मेहता का पालन-पोषण बड़े भाई तथा दादी ने किया। दादी का नाम था जयकुंवरि। भक्त नरसी मेहता बचपन से गूंगें थे प्रायः आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला। इस कारण लोग उन्हें गूंगा कहकर पुकारने लगे। इस बात से उनकी दादी जयरकुंवरि को बडा कष्ट होता था। वह बराबर इस चिन्ता में रहती थीं कि मेरे पौत्र की जबान कैसे खुले। परन्तु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शाक्ति कौन दे? जयकुंवरि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परमपिता परमेश्वरम ही है, उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यो को उनके प्रिय भक्तो के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है। अतएव स्वभावतः ही उनमे साधु-महात्माओ के प्रति श्रद्धा ओर आदर का भाव था। जब और जहां उन्हें कोई साधु-महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवा भी करती।


कहते है, श्रद्धा उत्कृष्ट होने पर एक-न-एक दिन फलवती होती ही है। आखिर जयकुंवरि की श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया। फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था। ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगत भर में छा रहा था। मन्द-मन्द बसन्त वायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था। नगर के नर-नारी प्रायः नित्य ही सांयकाल हाटकेश्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मन्दिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करती। नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड थी। जयकुंवरि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गयी। दर्शन करके लौटते समय उनकी दृष्टि एक महात्मा पर पड़ी, जो मन्दिर के एक कोने में व्याध्राम्बर पर आसन लगाये बैठे थे। उनके मुख से निरन्तर “नारायण नारायण” शब्द का प्रवाह चल रहा था। उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योति से जगमगा रहा था। देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हो। उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिमा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं संग उनके दर्शन करने को चली गयी। उसने दूर से ही बडे़ आदर ओर भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया ओर हाथ जोड़कर विनती की– “महात्मन्‌ ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता-पिता का देहान्त हो चुका है। प्रायः आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता। इसका नाम नरसिंहराम है ( भक्त नरसी मेहता का पुराना नाम ) परन्तु सब जग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते है।इससे मुझे क्लेश क्ले होता है। महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाये गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक दी कहा है कि–

संत हृदय नवनीत समाना। कहा कविन पै कहइ न जाना।।
निज परिताप दबइ नवनीता। संत दबइ परताप पुनीता॥

महात्मा्ं का हृदय मक्खन के समान होता है। इतना ही नहीं माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरो के ताप से द्रवीभूत हो जाते है। फिर ये महात्मा तो देवी शक्ति से सम्पन्न थे और मानो उस वृद्धा की मनोकामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आये थे। उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यानपूर्वक देखकर कहा– यह बालक तो भगवान का बडा भारी भक्त होगा। इतना कहकर उन्होने अपने कमण्डलु से जल लेकर मार्जन किया। और बालक के कानों में फूंक देकर कहा– बच्चा कहो राधे कृष्ण राधे कृष्ण।

बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक राधे कृष्ण राधे कृष्ण कहने लगा। उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गये ओर महात्मा जी की जय-जयकार पुकारने लगे। गूंगे पौत्र के मुख से भगवान के नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है। उसने महात्माजी को बार-बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बडी दीनता के साथ प्रार्थना की– महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा। मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पद पर है। आप मेरे घर पर पधारने की कृपा करे और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करे। आपकी चरणरज से मेरा घर भी पवित्र हो जायगा।


परन्तु सच्चे महात्मा सेवा या पुरस्कार के भूखे नहीं होते। वे तो सदा स्वभाव से ही लोक-कल्याण की चेष्टा करते रहते है। महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया—माता ! सुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है। इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है। उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटनघटनापटीयसी कहती है। अतः मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो ओर उनका नाम स्मरण, भजन-पूजन करो। मै इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता। तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारा कल्याण होगा। मै तो अब गिरनार पर जाता हूं ओर तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोडे ही दिनो में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जायगा।

जयकुंवरि को महात्मा जीके सामने विरोष आग्रह करने का साहस न हआ। वह पौत्र के साथ प्रसनवदन अपने घर चली आयी ओर उसने बडे पौत्र वंशीधर से महात्माजी का चमत्कार कह सुनाया। वंशीधर ने महात्माजी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बडी खोज करायी, परन्तु कहीं उनका पता न लगा। लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नरसी मेहता को ईष्टमन्त्र तथा वाचा देने वाले सिद्ध पुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे।

माणिक गौरी स्वरूपवती और सुलक्षणा कन्या थी,अतएव मनचाही योग्या पौत्रवधू पाकर उसे बड़ा सन्तोष हुआ। वंशीधर ने छोटे भाई नरसिंहराम की केवल पालन-पोषण और विवाह की ही चिन्ता नहीं की, बल्कि उनकी शिक्षा की ओर भी ध्यान दिया। उन्होने नरसिंह राम को एक संस्कृत पाठशाला में पढ़ने के लिए बैठा दिया। परन्तु नरसिंहराम का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगा। जबसे उन्हें महात्मा जी के द्वारा ईष्टमन्त्र की प्राप्ति हुई तब से उनका मन अधिकाधिक भगवान की ओर आकृष्ट होने लगा। वह निरन्तर राधे-कृष्ण नाम का जप किया करते। सुबह शाम मन्दिर मे जाकर देवी-देवताओं की पूजा करने, दर्शन करते और भजन- कीर्तन सुनते। श्री शंकर भगवान में भी उनकी बडी भक्ति थी। वह मन्दिर मे जाकर बडी श्रद्धा और प्रेम के साथ उमा-महेश्वर की पूजा-अर्चना करते और प्रेमानन्द में विभोर होकर भोलेनाथ के गुणगान करते। अगर कहीं पुराण या भागवत की कथा होती तो वहां जाकर बड़े ध्यान से भगवत कथा सुना करते। द्वारिका आने जाने वाले साधु-महात्मा जब अपने गांव में आते तो उनके दर्शन करते, यथासंभव उनकी सेवा करते, उनके उपदेश सुनते। अगर कोई भजन-कीर्तन करता तो स्वयं भी उसके साथ बैठकर भजन के पद गाते या करताल बजाया करते, कोई यदि भाव विभोर में आकर नृत्य करने लगता तो वह भी उसके साथ नाचने-कूदने लगते। अगर कभी कोई रास मण्डली गांव में आ जाती तब तो इनके आनन्द का कोई ठिकाना ही न रहता। नित्य ही रासलीला देखा करते। श्रीराधा, श्रीललिता आदि सखियों तथा ब्रज के अन्य गोप-गोपियो के भगवत प्रेम को देखकर वह इतने तत्लीन हो जाते कि उन्हें अपने शरीर की सुधि-बुधि भी नही रहती। कभी-कभी तो स्वंय भी वह किसी मण्डली में शामिल हो जाते। जब उन्हे रास में गोपी बनकर नाचने का सुअवसर मिल जाता तब तो वह अपार आनन्द का अनुभव करते ओर कृष्ण प्रेम में नाचते-नाचते बेहोश हो जाते। वह अपनी धुन मे खाना-पीना भी छोड देते, कई दिनों तो घर पर जाते ही नहीं। इसके लिए उन्हे भाई-भौजाई की डांट भी सुननी पडती, ताडना भी सहनी पडती, समाज में निन्दा भी होती, परन्तु फिर भी वह अपनी चाल न छोडते। भला जो एक बार अमृत स्वरूप भगवत प्रेम रस का आस्वादन पा गया उसे कोई उससे दूर हटा सकता है भक्त नरसी मेहता ने पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, सोना, खेलना-कूदना, दुःख-सुख, निन्दा- स्तुति सब कुछ उस एक भगवत प्रेम के ऊपर वार दिया।


वंशीधर ने उन्हें अपने मनोनुकूल ठीक मार्ग पर लाने के लिए कोई बात उठा न रखी, भौजाई ने भरपूर कौसने तथा पति-पत्नी दोनो को कष्ट पहुंचाने में अपनी ओर से कोई कोर-कसर न रहने दी, परन्तु (जैसे काटी कामरी चढत न दूजो रंग) नरसी मेहता के पक्के रंग पर कोई दूसरा रंग चढ़ा, धीरे-धीरे उनकी उम्र भी प्रायः पंद्रह वर्ष की हो गयी। भाई ने जब देखा कि अब उनका पढ़ना लिखना कठिन है, तब उन्होंने उनको घोड़ों की परिचर्या तथा घास काटने का कार्य सौप दिया। परन्तु इस साइसी के काम से भी नरसी मेहता को कोई कष्ट नहीं हुआ। वह बडी प्रसन्नता के साथ भगवन स्मरण करते हुए शक्तिभर सारा कार्य करने लगे।

प्रायः सौलह वर्ष की अवस्था होते-होते भक्त नरसी मेहता की पत्नी माणिकगौरी के गर्भ से एक पुत्री का जन्म हुआ। उसके दो वर्ष बाद फिर माणिकगौरी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्री का नाम कुँवरबाई ओर पुत्र का नाम शामलदास रखा गया। इस तरह भक्त नरसी मेहता को दो सन्तान का पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। परन्तु उनका यह सौभाग्य दुरितगौरी की आंखो का कांटा बन गया। एक तो यों ही देवर-देवरानी को देखकर वह सदा जला करती थी, अब उनके परिवार की वृद्धि उसके लिए और भी असह्य हो उठी। दोनों भक्त दम्पत्ति यद्यपि सेवक-सेविका की तरह दिन रात घर के सब छोटे-बड़े काम किया करते थे, फिर भी दुरितगौरी यही समझती थी कि यें लोग मुफ्त ही घर में बैठकर खा रहे है और दिन-पर-दिन इनका खर्च भी बढता ही जाता है। अतएव वह अब नित्य उनके काम में अकारण दोष निकालने लगी ओर झुठी-झूठी बातों से उनके विरुद्ध अपने पति के कान भरने लगी। नानाप्रकार के कारण दिखाकर उन्हे सताने लगी। वंशीधर यद्यपि यह जानते थे कि मेरी पत्नी बडी दुष्ट है, द्वेषवश छोटे भाई ओर उसकी पत्नी पर झूठा दोषारोपण करती है, वे बेचारे तो एकदम निर्दोष और पवित्र है, फिर भी कभी-कभी पत्नी की बातों में आकर वह छोटे भाई को कुछ भला बुरा सुना दिया करते थे।इस तरह परिवार में कुछ कलह का सूत्रपात हो गया।

वृद्धा जयकुंवरि को इस कलह का भावी कुपरिणाम स्पष्ट दिखाई दे रहा था। परन्तु घर में मृत्यु शैय्या पर पड़ी एक वृद्धा की बात सुनता कौन है? वह चुपचाप सब देखा करती। धीरे-धीरे उसकी अवस्था भी लगभग 95 वर्ष की हो गई। उसने मन में सोचा “अब मेरा जीवन बहुत थोडा है। अगर नरसी मेहता की पुत्री का विवाह भी मेरे सामने ही हो जाता तो अपनी यह अन्तिम इच्छा भी पूरी करके मैं शान्तिपूर्वक इस संसार से विदा होती ओर इस बेचारी का भी एक ठिकाना लग जाता। उन्होंने एक दिन वंशीधर को पास बुलाकर अपनी अभिलाषा प्रकट की।


वंशीधर ने वृद्धा दादी की आज्ञा टलना उचित नहीं समझा। उन्होने एक कुलीन और सुयोग्य वर की खोज करने के लिए कुल के पुरोहित को भेज दिया। पुरोहित जी घूमते-फिरते काठियावाड़ के ऊना नामक गांव में आये और उन्होंने वहां के श्रीमन्त नागर श्री रंगधर मेहता के पुत्र वसन्तराय के साथ कुंवरबाई का विवाह निश्चित किया। निश्चित तिथि पर बड़े धूमधाम के साथ कुंवरबाई की शादी हो गई। वृद्धा जयकुंवरि की अभिलाषा पूरी हुई और वह उसके लगभग तीन मास बाद शान्तिपूर्वक इस संसार से विदा हो गई।