जय गुरु देव
समय का जगाया हुआ नाम जयगुरुदेव मुसीबत में बोलने से जान माल की रक्षा होगी ।
परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज, उज्जैन (मध्य प्रदेश)
भक्त नरसी मेहता का अन्नय आश्रय (Bhakt Narasi Mehata Ka Annay Aashray)

प्रातःकाल का समय था, भगवान भुवनभास्कर ने अपने उपः कालीन प्रकाश से दसो दिशाओं को सुवर्णमयी बना रखा था। इसी समय भक्तवर नरसी मेहता जूनागढ़ के समीप गरुङासन से उतर पडे। उन्होने एक समीपवर्ती तालाब पर स्नान आदि नित्य-क्रियाओं से छुट्टी पा कुछ देर भगवद-भजन किया। उसके बाद उन्होंने सोचा— मै किसके पास चलू? भाई-भौजाई ने तो उसी दिन घर से निकाल दिया था, वे लोग क्यों मेरा स्वागत करेंगे? परन्तु उनके सिवा अपना दूसरा है भी कौन ? पहले तो उन्ही के पास चलना चाहिये, चाहे वे मेरा अपमान ही क्यों न करे। उनके पास भगवान की दी हुई प्रतिमा, करतार, मोर मुकुट ओर पीताम्बर के सिवा ओर कुछ तो था नहीं। इन्हीं वस्तुओ के साथ वैष्णव-वेष मे वह अपने घर आये। उन्होंने बड़ी नम्रता के साथ अपने भाई-भौजाई को प्रणाम किया। उनके इस वेष को देखकर वंशीधर को बडा आश्चर्य और साथ ही क्रोध हुआ। उन्होने कहा– अरे मूर्ख ! तैने यह क्या बाना धारण किया है ? मस्तक पर तिलक, गले मे तुलसी की माला, हाथ मे करतार, सिर पर मोर मुकुट और कमर मे पीतम्बर– यह सब किसने तुझे पहनाया है? उतार फेंक इस वेष को।

भक्त नरसी मेहता ने बडे विनय के साथ कहा– भाईजी! यह आप क्या कह रहे है? यह वेष स्वंय वैकुंठवासी भगवान श्रीकृष्ण जी का दिया हुआ है। मेरे लिए यही उनका परम पवित्र प्रसाद है। भगवान् के प्रसाद की अवज्ञा स्वंय भगवान की अवज्ञा है। वंशीधरने तिरस्कारपूर्ण शब्दों में कहा– अरे मूर्ख ! क्यों पागलपन की बाते करता है, नादानी छोड, अब तू लडका नहीं रहा, दो बालको का पिता है। यह भिखारियों का सा वेष छोडकर दो पैसे पैदा करने का उपाय कर। नात-जात मै क्यों मेरी हठी कराता है, ये सब चाल छोडकर ठीक रास्ते पर आ जाये तो अब भी राणा से कह सुनकर तुझे दस-पांच की की नौकरी दिला दूं। इस पागलपन में क्या रखा है? भूखों मरना पडेगा।’

भक्तराज ने कहा:– भाई! आप मेरे बड़े भाई होने के नाते पिता तुल्य पूज्य है। आपकी बातें मानना ही मेरा धर्म है। परन्तु मैं लाचार हूं, यह वेष मेर प्रियतम परमात्मा का दिया हुआ है। यह मूर्ति, करतार, मुकुट, पीताम्बर आदि सभी वस्तु उन्ही से प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुई है अतः ये मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। इन वस्तुओं का ओर इस वेष का त्याग मुझसे जीते-जी नहीं हो सकता। अवश्य ही संसार की दृष्टि मे यह मेरा पागलपन ही है! दुनिया का चश्मा ही न्यारा है, दुनिया को सयाने मनुष्य दीवाने-से प्रतीत होते है, यह इतिहास प्रसिद्ध बात है। क्या प्रह्लाद को हिरण्यकश्यप ने पागल नहीं समझा था ? क्या विभीषण को रावण ने मूर्ख नहीं समझा था? जहां ऐसी बात है वहां तो दीवाना बनकर रहना ही श्रेयस्कर है। आशा है कि इस ढिठाई के लिए आप क्षमा करेंगे। नरसी मेहता ने निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया।

वंशीधर ने कहा:– बेवकूफ ! क्यों व्यर्थ मुझे समझाने की चेष्टा कर रहा है? भगवान कहा तेरे लिए रास्ता देख रहे थे कि तू उनसे मिल आया तेरे-जैसे अक्लमंदो को यदि वह दर्शन देने लगे तब तो संसार ही सूना हो जाये, वैकुंठ मे फिर घुसने को जगह भी न मिले। अरे कोई धूर्त मिल गया होगा धूर्त। नरसिंह ! अब इस बेवकूफी को छोड़, नहीं तो बहुत पछताना पड़ेगा। नात-जात, सगा-सम्बन्धी कोई साथ न देगा। लड़की का विवाह तो हो गया, परन्तु लडके का विवाह होना मुश्किल हो जायगा और विवाह नहीं होने से हमारा कुल भी नीचा माना जायेगा।

अभी तक दुरितगौरी चुपचाप दोनों भाईयों की बातचीत सुनती रही, परन्तु अब नरसी मेहता का हठ उसको अस्हय हो उठा। उसने बीच में ही उनकी बात काटते हुए रोषपूर्ण शब्दो में कहना शुरू किया– देखो, बडा टीका लगाकर भगतराज आ गये ! छोटे-बडे का तनिक भी लिहाज नही, लाख समझाओ परन्तु अपनी ज्ञानकथनी नहीं छोड़गे। आजतक घर में झगडे का नाम नहीं था, आज आते ही झगडने लगा। तेरा ज्ञान त॒झे मुबारक हो, हमें तुझे साथ रखकर नात-गोत में अपनी नाक नहीं कटानी है। या तो यह वेष उतार दे ओर भले आदमी की तरह घर मे रह ओर नहीं तो हमे मुंह मत दिखा। मैने तुम सब लोगों का ऋण नहीं खाया है यदि कुछ भी लाज-शर्मं हो तो अपने बच्चों को साथ लेकर घर से निकल जा। इतने दिन न जाने कहां भूखों मरता रहा, अब फिर मेरी जान खाने को आ गया।

नरसी जी:– भाभी ! ऐसे कठोर वचन क्यो मुंह से निकाल रही हो यदि आपको मेरा कुटुम्ब भार स्वरूप मालूम हो रहा है तो कल से मैं अलग हो जाऊंगा। आप व्यर्थ मन में क्लेश न माने, मैं तोआपको माता के समान मानता हूं।

भौजाई:– तू वड़ा टेकवाला है, यह मुझे मालूम है। यदि ऐसी हीतेरी इच्छा है तो फिर कल क्यो? आज ही अच्छा मूहर्त है।

प्राणेश ! धर्मशाला में तो मुसाफिर ओर साधु-फकीर रहा करते है; गृहस्थ लोग धर्मशाला रहना अच्छ नहीं समझते। फिर हमारी नागर-जाति अत्यन्त द्वैष करने वाली है इस बात का भी विचार कर॒ लेना चाहिये। माणिकबाई ने लौकिक व्यवहार की स्मृति दिखा दी।

प्रिये ! यह संसार भी एक प्रकार की धर्मशाला ही है। जिस प्रकार इस छोटी-सी धर्मशाला मे मुसाफिरों का आना-जाना बराबर जारी रहता है, उसी प्रकार संसार रूपी विशाल धर्मशाला में भी मुसाफिर रूपी अनेक जीवो का आगमन लगा रहता है। राजा से लेकर रंक तक सभी मनुष्य का यही हाल है। उसमे विचार करने की कोई बात नहीं। नरसी मेहता ने पत्नी को तात्विक ढंग से समझाया। जैसी आपकी इच्छा कहकर पतिव्रता माणिकबार्ई चुप हो गयी।

भक्तराज अपने परिवार सहित गांव से बाहर धर्मशाला मे जाकर ठहर गये, उनके परिवार की एकमात्र सम्पत्ति थी, भगवान्‌ की दी हुई प्रतिमा, करताल ओर मुकुट। सांयकाल हो जाने पर भक्तराज भगवान की प्रतिमा के सामने बैठकर प्रेमपूर्वक भजन करने लगे। उनके नेत्रो से प्रेमाश्रु बह रहे थे। प्रायः आधी रात तक भजन निरन्तर चलता रहा। उसके बाद भजन बंद कर भक्त नरसी मेहता शयन की तैयारी कर रहे थे कि ठीक उसी समय एक धनाढव्य सेठ ने भक्तराज के पास आकर प्रणाम किया ओर फिर वह उनके पास बैठ गये। भक्तराज ने महाजन से पूछा आप कौन हैं?

महाजन:– भक्तराज ! में एक परदेशी महाजन हूं, आजकल यात्रा कर रहा हूं। कृपया अप अपना हाल सुनाये, सेठ जी ने संक्षेप मे अपना परिचय देकर प्रश्न किया। भक्त नरसी मेहता ने शुरू से अंत तक अपनी सारी आपबीती सुनाई दी। साध पुरुष के दिल में किमी से कुछ छिपाव तो होता नहीं। सेठजी ने उनकी दसा पर संवेदना प्रकट करते हुए कहा–“भक्तराज! आपकी स्थिति सुनकर सुनकर बडा कष्ट हुआ यदि आप बुरा न माने तो मैं आपकी कुछ सेवा करना चाहता हूं।

भक्तराज:– सेठजी आपकी उदारता धन्य है। मैं आपका आभारी परन्तु सबसे पहले में आपका पूरा परिचय जानना चाहता हूं भक्तराज ने आग्रहपूर्वक कहा।

सेठजी:– भक्तशिरोमणि ! यदि आपकी यही इच्छा है तो मै पहले अपना पूरा परिचय ही देता हूं। आपसे कुछ छिपाव तो है नहीं। मैं अक्रूर हूं। भगवान श्रीकृष्ण को आपके निर्वाह की अत्यन्त चिन्ता रहती है। इसलिए भगवान की आज्ञा से में आपके पास आया हूं। आपको जो कुछ चाहिए उसे नि:संकोच भाव से मुझे सुचित कीजिए। भगवान् की अकस्मात्‌ कृपा जानकर भक्तराज गदगद हो गये। उनके मन में निश्चय हो गया कि भगवान का वचन सर्वथा सत्य है। कुछ क्षण कृतगयता पूर्ण ह्रदय से भगवान का स्मरण करके भक्तराज बोले– महाराज! रहने के लिए एक मन्दिर, जीवनरक्षा के लिए कुछ अन्नजल तथा साधू सेवा के लिए आवश्यक सामग्री, इसके सिवा मुझे और क्या चाहिए?

सेठजी:– ‘अच्छा, प्रातःकाल होते ही अपकी आज्ञानुसार सारी व्यवस्था हो जायगी। दूसरे दिन प्रातःकाल भक्त नरसी मेहता तो स्नानादि नित्यकर्मो से निवृत्त होकर भजन-पूजन में प्रवृत्त हुए ओर अक्रूर जी सेठ के वेष में शहर जाकर उनका सारा प्रबंध करने लगे। उन्होने एक अत्यन्त सुन्दर मकान उनके रहने के लिए मोल ले लिया ओर अन्न, वस्त्र तथा अन्य गृहस्थी की सारी वस्तु खरीद कर उसमें भर दी। सारा प्रबंध हो जाने पर अक्रुर जी ने भक्तराज के पास आकर कहा– भक्तराज ! आपकी आज्ञा के अनुसार सभी वस्तु तथा मन्दिर तैयार है। आप चलकर ग्रहण किजिए। भक्तराज परिवार सहित उस मकान में आ गये। उन्होंने देखा, मकान के अंदर श्रीकृष्ण-मन्दिर, कीर्तनशाला, पाकशाला, भण्डार घर, अतिथिशाला, सोने-बैठने की जगह इत्यादि सब चीजों की पूर्ण व्यवस्था है। भंडार घर में तीन वर्ष तक के लिए पर्याप्त अन्नादि सामग्री भर दी गई है। किसी वस्तु की कमी नहीं है। अक्रूर जी ने कहा– भक्तराज ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण जी की आज्ञानुसार मैने सारी व्यवस्था कर दी है। यह पांच हजार स्वर्ण मुद्रा आपको व्यय करने के लिए देता हूं अब आज्ञा दीजिये, मै विदा होना चाहता हूं।