जय गुरु देव
समय का जगाया हुआ नाम जयगुरुदेव मुसीबत में बोलने से जान माल की रक्षा होगी ।
परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज, उज्जैन (मध्य प्रदेश)
भक्त नरसी मेहता के पुत्र का विवाह (Bhakt Narasi Mehata Ke Putr Ka Vivaah)

भक्त नरसी मेहता के पुत्र शामलदास की अवस्था धीरे-धीरे बारह वर्ष की हो गयी। माणिकबाई ने देखा कि अब लडका भी विवाह योग्य होने को आया और हमारे घर खाने का भी ठिकाना नहीं है। गरीब के घर अपनी पुत्री कौन देना चाहेगा? और कुल-परिवार के लोग भी प्रसन्न नही जो काम में सहायता करेंगे, वे तो यही कारण दिखाकर उलटे बाधक हो सकते है। ऐसी स्थिति मे तो पुत्र का विवाह होना कठिन ही प्रतीत होता है। एक दिन उसने अपनी चिन्ता पति पर प्रकट की। पति ने कहा— प्रिये ! तुम व्यर्थ दुःख क्यो करती हो? चिन्ता छोडो, केवल श्रीकृष्ण का ध्यान करो, सदा मन में उन्हीं को रखो। वह दयालु प्रभु अपनेआप हमारे सारे कार्य यथा समय करते रहेंगे, वह स्वयं हमसे अधिक हमारे लिए चिन्तित होगें।

उन्दी दिनों गुजरत के वड़नगर नामक शहर के रहने वाले मदन मेहता की पुत्री के लिए एक सुयोग्य वर खोज चल रही थी। मदन मेहता एक प्रतिष्ठित नागर गृहस्थ थे। वह स्वयं एक राज्य के दीवान के पद पर थे और आठ दस लाख की सम्पत्ति भी उनके पास थी। उनकी सुंदर पुत्री जूटीबाई (सूरसेना) विवाह के योग्य हो हो गई थी

उन्होंने कई जगह सुयोग्य वर की खोज की परन्तु कहीं उनका मन नहीं जमा। अन्त में कुल-परिवार के लोगो को एकत्र कर उन्होंने पूछा कि पुत्री का विवाह कहां करना चाहिए। सब लोगों ने राय दी कि आसपास तो अपके योग्य कोई गृहस्थ नहीं। जूनागढ़ में हमारी जाति के सात सौ घर बसते है अतः वहां कोई योग्य घर अवश्य मिल जायेगा। सारे सम्बंधियो की सलह के अनुसार मदन मेहता ने अपने कुल पुरोहित क एक सुन्दर, सुशील, कुलीन ओर गुणवान्‌ वर की खोज करने के लिए वाहन तथा द्रव्यादि देकर जूनागढ़ भेज दिया। मदन मेहता के एक सहपाठी मित्र सारंगधर जूनागढ़ में रहते थे। अतः उन्होने उनके नाम एक पत्र भी पुरोहित जी को दे दिया। पुरोहित जी को सब लोग दीक्षित नाम से पुकारा करते थे।

जूनागढ़ के जिस मुहल्ले मे नागर लोगो की घनी बस्ती थी, उसके बीच मे एक चबूतरा बना हुआ था, जिस पर शाम को बहुत से लोग बैठकर गपशप किया करते थे। उस दिन भी कुछ लोग बैठ कर बात कर रहे थे कि वहां दीक्षित जी का रथ आकर खडा हुआ । सब का ध्यान उस भोर आकृषित हो गया। दीक्षित जी ने पूछा– महोदय ! सारंगधर जी मेहता का घर कहां पर है। सारंगधर मेहता नागर जाति का एक प्रतिष्ठित गृहस्थ था उस समय वह भी वहां मौजूद था। उसने उत्तर दिया–“ किहिए महोदय! आप कहां से पधार रहे है, क्या काम है, मुझे ही लोग सारंगधर कहते है।

दीक्षित जी ने रथ से उतरकर यजमान की दी हुई चिट्ठी उसके हाथ में दे दी। चिठ्ठी खोलकर वह पढ़ने लगा। चिठ्ठी सुनकर वहां बैठे अतिदुखराय (जो धनी व्यक्ति थे,) ने मदन मेहता से संबंध बांधने की इच्छा जाहिर की। और दीक्षित जी को आक्रष्ट॒ करने का भरपूर प्रयत्न किया। वहां पर बैठे हुए कुछ गांव के लोगों ने भी उनकी प्रशंसा का पुल बांध दिया। दीक्षित ने उनके पुत्र को देखने की इच्छा प्रकट की, और उनके घर पहुंचे, जब अतिदुखराय का पुत्र गहने-वस्त्र से सजकर सामने आया तो दीक्षित जी ने उससे प्रश्न किया- तुम्हारा नाम क्या है? लडके ने तोतली आवाज में उत्तर दिया— ....... । दीक्षित जी ने फिर आगे कुछ न पूछ सारंगधर को उठने के लिए कहा।

इस प्रकार कई दिनों तक घूम-फिरकर अपने हित-मित्र ओर जाति के प्रायः सैकड़ों लडको को सारंगधर ने दिखाया। परन्तु दीक्षित जी की दृष्टि में एक भी लडका नहीं चढ़ा। किसी को वधिर, किसी को तुतला, किसी को मूर्ख, किसी को कुरूप इत्यादि एक-न-एक कारण दिखाकर उन्होने सबको फेल कर दिया। स्वयं दीक्षित जी भी अयोग्य लडको को देखते-देखते तंग आ गये। उन्हें सन्देह हो गया कि शायद सारंगधर योग्य वर दिखाने की अपेक्षा अपने सगे-सम्बन्धी और मित्र के लडके दिखाने की अधिक चिन्ता रखता है।अब उनका मन सारंगधर पर विश्वास करने की गवाही नहीं देता था। परन्तु मदन मेहता ने जब सारंगधर को अपना मित्र समझकर उसके पास उन्हे भेजा था, तब वह उसके विरुद्ध कैसे कल सकते थे? अतएव उन्होंने सारंगधर से कहा–“मेहताजी ! केवल कुलीन या सुन्दर लडका मुझे नहीं चाहिये, लड़का गुणवान्‌ भी होना चाहिये। आपने बहुत से लडके दिखाये, परन्तु सुयोग्य वर एक भी दिखायी नहीं पडा।

सारंगधर जी इधर दीक्षित जी की चाल से तंग गया था। उसने सोचा यह बडा विलक्षण आदमी है, इसे कोई लडका पसंद ही नहीं आता। यह अपने को बडा चालक समझता है। अब मे भी ऐसा घर बताता कि यह भी याद रखेगा। सारंगधर ने मुसकराते हुए दीक्षितजी से कहा– दीक्षित जी ¡ आप मेरी जाति के सेकडों लडकें देख चुके। अब मै अपनी जाति के मुखिया का एक लड़का दिखाता हूं, मुझे आशा है, वह लड़का आपको अवश्य पसंद आ जायेगा। बहुत तरह की चीजें दिखाने के बाद अच्छी चीज दिखाने पर ही उसका मूल्य ठीक समझ आता है।

दीक्षित जी ने कहा- अच्छा; अन्त में ही दिखाइए, पर दिखाइये सुयोग्य वर, अब अधिक तरह की चीजें देखने की मेरी इच्छा नही है। अब तो काम खत्म करके मैं शीघ्र वापस होना चाहता हूं। सारंगधर ने मन मे मजाक का भाव देकर दूर से ही इशारा करते हुए कहा- वह देखिये, स्वर्ण-कलश वाला जो मन्दिर दिखायी देता है, वह भक्त नरसी मेहता मेहता का घर है। वह बड़ा ही कुलीन ओर भग्वदभक्त गृहस्थ है। उनका व्यवहार बडा सच्चा है ओर उन्होंने धन भी खूब एकत्र कर रखा है। उनका पुत्र भी हर तरह से योग्य है। वहां आपको पूर्ण सन्तोष होगा। वहां मेरे जाने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं। अच्छा महाराज! नमस्कार! मैं अभी वहां जाता हूं। यदि सब प्रकार से सन्तोष हो जायगा तो, मैं अवश्य सबंध कर दूंगा।

दीक्षित जी को शामलदास का मुखमण्डल चन्द्रमा के समान सुकान्ति युक्त दिखाई पड़ा। उसकी अलौकिक तेजस्वी मूर्ति को देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने सामुद्रिकविद्या के अनुसार शामलदास में अनेक शुभ लक्षण देखे। उन्होने तुरंत शामलदास के हाथ मे श्रीफल तथा स्वर्ण मुद्रा देकर ललाट पर तिलक कर दिया फिर प्रसन्नता के साथ वह बोले–भक्तराज! मदनराय की पुत्री जूठीबाई के साथ आज मै शामलदास का सम्बन्ध करता हूं।

जैसी परमात्मा की इच्छा कहकर भक्तराज ने अपनी निर्लिप्ता प्रकट की। इतने में ही माणिकबाई भी वहा पहुंच गई। पुत्र का सम्बन्ध हो जाने की बात जानकर माता का ह्रदय कितना पुलकित हुआ, इसे कौन कह सकता है? इस निर्धनता में भी अपने इस सौभाग्य की बात सोचकर आनन्द के मारे उसके नेत्र मीठे हो गये।

दूसरे दिन दीक्षित जी वडनगर के लिए विदा हो गये। उन्होने वड़नगर पहुंचकर अपने यजमान के सामने भक्त नरसी मेहता की अपूर्व भक्ति, सज्जनता, साई आदि का खूब बखान किया।सामलदास के रूप, शरीर ओर सुरक्षण का वर्णन करते हुए जूठीबाई के सौभाग्य के लिए उसे बधाई दी। मदन राय का सारा परिवार उनके वर्णन को सुनकर बड़ा आनन्दित हुआ। नरसी मेहता की निरृधनता पर मदनराय ने बड़े उत्साह के साथ कहा कि–“जब कल-शीलादि में वह सब तरह से योग्य है तो फिर धन की कोई चिन्ता नहीं। भगवान्‌ ने भरपूर दिया है; सात-आठ लाख की सम्पत्ति में से एकाध लाख भी उन्हे दे देने से उनका कष्ट दूर हो जायेगा।