कर्मशीलता को माना सच्ची उपासना | Work is considered as true worship.
कार्य उद्यम से ही सिद्ध होते हैं , मनोरथ मात्र से नहीं । सोये हुए शेर के मुख में मृग प्रवेश नहीं करते ।
दो मित्र थे। दोनों के मध्य मित्रता अवश्य थी, किन्तु दृष्टि और विचार दोनों के भिन्न-भिन्न थे।
एक आलसी था और सदैव भाग्य के भरोसे रहता, वह ईश्वर से मांगता रहता की बिना मेहनत किए उसे सब कुछ मिल जाए। दूसरा मेहनती था।
वह मूर्तियां बनाता और उससे मिलती आय से सुखपूर्वक जीवन यापन करता। पहला मित्र दुनिया के प्रत्येक आयाम को नकारात्मक दृष्टि से देखता, तो दूसरा सकारात्मकता से भरा था।
एक दिन वह दोनों मित्र जंगल से होकर कहीं जा रहा थे। मार्ग में उन्हें एक सुंदर गुलाबी पत्थर दिखाई दिया। पहला मित्र उस पत्थर को भगवान का प्रतीक मानकर हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा और ईश्वर से आशिर्बाद मांगने लगा। दूसरे मित्र ने उस पत्थर को बड़े ध्यान से देखा और फिर उसे उठाकर अपने घर ले गया।
शीघ्र ही उसने उस पत्थर से भगवान की अत्यंत सुंदर प्रतिमा बना दी।
कलाकार की इस सुंदर कला को जिसने देखा, उसी ने सराहा।
एक श्रद्धालु ने इस प्रतिमा को ऊँचे दाम देकर खरीद लिया।
इससे मूर्तिकार को बहुत अच्छी आय हुई।
एक दिन दोनों मित्र मिले और एक-दूसरे का हाल-चाल पूछा। पहले ने दुःख क्लेश प्रकट किया, किन्तु दूसरे ने प्रगति व प्रसन्नता का समाचार सुनाया।
दरसअल पहला मित्र परिश्रम की बजाय भाग्य के भरोसे रहता था और दूसरा कर्म में विश्वास करता था और मानता था कि सच्ची उपासना कर्मशीलता में निहित है।
वास्तव में अपने समस्त कर्तव्यों का निष्काम भाव से समुचित निर्वहन ही कर्मयोग है और यही सच्ची भक्ति या उपासना है।
ईश्वर भी उसकी सहायत करता है जो अपनी सहायता खुद करते हैं। |