जय गुरु देव
समय का जगाया हुआ नाम जयगुरुदेव मुसीबत में बोलने से जान माल की रक्षा होगी ।
परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज, उज्जैन (मध्य प्रदेश)
मित्र सम्प्राप्ति (Mitr Samprapti)

मित्र सम्प्राप्ति | friend acquisition


दक्षिण देश के एक प्रान्त में महिलारोप्य नाम का एक नगर था।

वहाँ एक विशाल वटवृक्ष की शाखाओं पर लघुपतनक नाम का कौवा रहता था।

एक दिन वह अपने आहार की चिन्ता में शहर की ओर चला ही था कि उसने देखा कि एक काले रंग, फटे पाँव और बिखरे बालों वाला यमदूत की तरह भयंकर व्याध उधर ही चला हा रहा है।

कौवे को वृक्ष पर रहने वाले अन्य पक्षियों को भी चिन्ता थी।

उन्हें व्याध के चंगुल से बचाने के लिए वह पीछे लौट पड़ा और वहाँ सब पक्षियों को सावधान कर दिया कि जब यह व्याध वृक्ष के पास भूमि पर अनाज के दाने बिखेरे, तब कोई भी पक्षी उन्हें चुगने के लालच से न जाए, उन दानों को कालकूट की तरह ज़हरीला समझें।

कौवा अभी यह कह ही रहा था कि व्याध ने वटवृक्ष के नीचे आकर दाने बिखेर दिए और स्वयं दूर जाकर झाड़ी के पीछे छिप गया।

पक्षियों ने भी लघुपतनक का उपदेश मानकर दाने नहीं चुगे। वे उन दानों को हलाहल विष की तरह मानते रहे।

किन्तु इस बीच में व्याध के सौभाग्य से कबूतरों का एक दल परदेश से उड़ता हुआ वहाँ आया।

इसका मुखिया चित्रग्रीव नाम का कबूतर था।

लघुपतनक के बहुत समझाने पर भी वह भूमि पर बिखरे हुए उन दानों को चुगने के लालच को न रोक सका।

परिणाम यह हुआ कि वह अपने परिवार के साथियों समेत जाल में फँस गया।

लोभ का यही परिणाम होता है। लोभ से विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है।

स्वर्णमय हरिण के लोभ से श्रीराम यह न सोच सके कि कोई हरिण सोने का नहीं हो सकता।

जाल में फँसने के बाद चित्रग्रीव ने अपने साथी कबूतरों को समझा दिया कि वे अब अधिक फड़फड़ाते या उड़ने की कोशिश न करें, नहीं तो व्याध उन्हें मार देगा।

इसीलिए वे अब अधमरे-से हुए जाल में बैठ गए।

व्याध ने भी उन्हें शान्त देखकर मारा नहीं। जाल समेटकर वह आगे चल पड़ा।

चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध निश्चित हो गया है और उसका ध्यान दूसरी ओर गया है, तभी उसने अपने साथियों को जाल समेत उड़ जाने का संकेत किया।

संकेत पाते ही सब कबूतर जाल लेकर उड़ गए। व्याध को बहुत दुःख हुआ।

पक्षियों के साथ उसका जाल भी हाथ से निकल गया था।

लघुपतनक भी उन उड़ते हुए कबूतरों के साथ उड़ने लगा।

चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध का डर नहीं है तो उसने अपने साथियों को कहा-व्याध तो लौट गया।

अब चिन्ता की कोई बात नहीं, चलो, हम महिलारोप्य शहर के पूर्वोत्तर भाग की ओर चलें वहाँ मेरा घनिष्ठ मित्र हिरण्यक नाम का चूहा रहता है।

उससे हम अपने जाल को कटवा लेंगे। तभी हम आकाश में स्वच्छन्द घूम सकेंगे।

वहाँ हिरण्यक नाम का चूहा अपने सौ बिलों वाले दुर्ग में रहता था।

इसीलिए उसे डर नहीं लगता था। चित्रग्रीव ने उसके द्वार पर पहुँचकर आवाज़ लगाई।

वह बोला-मित्र हिरण्यक! शीघ्र आओ। मुझपर विपत्ति का पहाड़ - टूट पड़ा है।

उसकी आवाज़ सुनकर हिरण्यक ने अपने ही बिल में छिपे-छिपे प्रश्न किया-तुम कौन हो ? कहाँ से आए हो ? क्या प्रयोजन है ?

चित्रग्रीव ने कहा-मैं चित्रग्रीव नाम का कपोतराज हूँ। तुम्हारा मित्र हूँ।

तुम जल्दी बाहर जाओ; मुझे तुमसे विशेष काम है।

यह सुनकर हिरण्यक चूहा अपने बिल से बाहर आया। वहाँ अपने परममित्र चित्रग्रीव को देखकर वह बड़ा बड़ा प्रसन्न हुआ, किन्तु चित्रग्रीव को अपने साथियों समेत जाल में फँसा देखकर वह चिन्तित भी हो गया।

उसने पूछा-मित्र! यह क्या हो गया तुम्हें ?

चित्रग्रीव ने कहा-जीभ के लालच में हम जाल में फँस गए। तुम हमें जाल से मुक्त कर दो।

हिरण्यक जब चित्रग्रीव के जाल का धागा काटने लगा तब उसने कहा-पहले मेरे साथियों के बन्धन काट दो, बाद में मेरे काटना।

चित्रग्रीव-ये मेरे आश्रित हैं, अपने घर-बार को छोड़कर मेरे साथ आए हैं। मेरा धर्म है कि पहले इनकी सुख-सुविधा को दृष्टि में रखू।

अपने अनुचरों में किया हुआ विश्वास बड़े से बड़े संकट से रक्षा करता है।

हिरण्यक चित्रग्रीव की यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ।

उसने सबके बन्धन काटकर चित्रग्रीव से कहा-मित्र! अब अपने घर जाओ। विपत्ति के समय फिर मुझे याद करना।

उन्हें भेजकर हिरण्यक चूहा अपने बिल में घुस गया चित्रग्रीव भी परिवार सहित अपने घर चला गया।

लघुपतनक कौवा यह सब दूर से देख रहा था।

वह हिरण्यक के कौशल और उसकी सज्जनता पर मुग्ध हो गया।

उसने मन ही मन सोचा, यद्यपि मेरा स्वभाव है कि मैं किसी का विश्वास नहीं करता, किसी को अपना हितैषी नहीं मानता, तथापि इस चूहे के गुणों से प्रभावित होकर मैं इसे अपना मित्र बनाना चाहता हूँ।

यह सोचकर वह हिरण्यक के दरवाजे पर जाकर चित्रग्रीव के समान ही आवाज़ बनाकर हिरण्यक को पुकारने लगा।

उसकी आवाज़ सुनकर हिरण्यक ने सोचा, यह कौन-सा कबूतर है? क्या इसके बन्धन कटने शेष रह गए हैं?

हिरण्यक ने पूछा-तुम कौन हो ?

लघुपतनक-मैं लघुपतनक नाम का का कौवा हूँ

हिरण्यक-मैं तुम्हें नहीं जानता, तुम अपने घर चले जाओ। लघुपतनक-मुझे तुमसे बहुत जरूरी काम है; एक बार दर्शन तो दे दो।

हिरण्यक-मुझे तुम्हें दर्शन देने का कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देता।

लघुपतनक-चित्रग्रीव के बन्धन काटते देखकर मुझे तुमसे बहुत प्रेम हो गया है।

कभी मैं बन्धन में पड़ जाऊँगा तो तुम्हारी सेवा में आना पड़ेगा।

हिरण्यक-तुम भोक्ता हो, मैं तुम्हारा भोजन हूँ, हममें प्रेम कैसा ? जाओ, दो प्रकृति से विरोधी जीवों में मैत्री नहीं हो सकती।

लघुपतनक-हिरण्यक! मैं तुम्हारे द्वार पर मित्रता की भीख लेकर आया हूँ। तुम मैत्री नहीं करोगे तो यहीं प्राण दे दूंगा।

हिरण्यक-हम सहज वैरी हैं, हमसे मैत्री नहीं हो सकती। लघुपतनक-मैंने तो कभी तुम्हारे दर्शन भी नहीं किए। हमसे वैर कैसा ?

हिरण्यक-वैर दो तरह का होता है-सहज और कृत्रिम। तुम मेरे सहज वैरी हो।

लघुपतनक-मैं दो तरह के वैरों का लक्षण सुनना चाहता हूँ।

हिरण्यक-जौ वैर कारण से हो वह कृत्रिम होता है, कारणों से ही उस वैर का अन्त भी हो सकता है।

स्वाभाविक वैर निष्कारण होता है, उसका अन्त हो ही नहीं सकता।

लघुपतनक ने बहुत विरोध किया, किन्तु हिरण्यक ने मैत्री के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।

तब लघुपतनक ने कहा-यदि तुम्हें मुझपर विश्वास न हो तो तुम अपने बिल में छिपे रहो; मैं बिल के बाहर बैठा-बैठा ही तुमसे बातें कर लिया करूँगा।

हिरण्यक ने लघुपतनक की यह बात मान ली।

किन्तु लघुपतनक को सावधान करते हुए कहा-कभी मेरे बिल में प्रवेश करने की चेष्टा मत करना-कौवा इस बात को मान गया।

उसने शपथ ली कि कभी वह ऐसा नहीं करेगा।

तब से दोनों मित्र बन गए। ये नित्यप्रति परस्पर बातचीत करते थे। दोनों के दिन बड़े सुख से कटते थे।

कौवा कभी इधर-उधर से अन्न-संग्रह करके चूहे को भेंट भी देता था।

मित्रता में आदान-प्रदान स्वाभाविक था। धीरे-धीरे दोनों की मैत्री घनिष्ठ होती गई। दोनों एक क्षण भी एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे।

बहुत दिन बाद एक दिन आँखों में आँसू भरकर लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा-मित्र! अब मुझे इस देश से विरक्ति हो गई है, इसलिए दूसरे देश में चला जाऊँगा।

कारण पूछने पर उसने कहा-इस देश में अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ गया है।

लोग स्वयं भूखे मर रहे हैं, एक दाना भी नहीं रहा। घर-घर में पक्षियों के पकड़ने के लिए जाल बिछ गए हैं।

मैं तो भाग्य से ही बच गया। ऐसे देश में रहना ठीक नहीं।

हिरण्यक-कहाँ जाओगे ?

लघुपतनक-दक्षिण दिशा की ओर एक तालाब है। वहाँ मन्थरक नाम का एक कछुआ रहता है।

वह भी मेरा वैसा ही घनिष्ठ मित्र है जैसे तुम हो। उसकी सहायता से मुझे पेट भरने योग्य अन्न-माँस आदि अवश्य मिल जाएगा।

हिरण्यक-यही बात है तो मैं भी तुम्हारे साथ जाऊँगा। मुझे भी यहाँ बड़ा दुःख है।

लघुपतनक-तुम्हें किस बात का दुःख है

हिरण्यक-यह मैं वहीं पहुँचकर तुम्हें बताऊँगा।

लघुपतनक--किन्तु मैं तो आकाश में उड़ने वाला हूँ। मेरे साथ तुम कैसे जाओगे ?

हिरण्यक-मुझे अपने पंखो पर बिठाकर वहाँ ले चलो।

लघुपतनक यह बात सुनकर प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि वह सपात आदि आठों प्रकार की उड़ने की गतियों से परिचित है।

वह उसे सुरक्षित निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा। यह सुनकर हिरण्यक चूहा लघुपतनक कौवे की पीठ पर बैठ गया दोनों आकाश में उड़ते हुए तालाब के किनारे पहुंचे।

मन्थरक ने जब देखा कि कोई कौवा चूहे को पीठ पर बिठाकर आ रहा है तो वह डर के मारे पानी में घुस गया। लघुपतनक को उसने पहचाना नहीं।

तब लघुपतनक हिरण्यक को थोड़ी दूर छोड़कर पानी में लटकती हुई शाखा पर बैठकर ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगा-मन्थरक! मन्थरक!

मैं तेरा मित्र लघुपतनक आया हूँ। आकर मुझसे मिल।

लघुपतनक की आवाज़ सुनकर मन्थरक खुशी से नाचता हुआ बाहर आया। दोनों ने एक-दूसरे का आलिंगन किया।

हिरण्यक भी तब वहाँ आ गया और मन्थरक को प्रणाम करके वहाँ बैठ गया।

मन्थरक ने लघुपतनक ने पूछा-यह चूहा कौन है ? भक्ष्य होते हुए भी इसे अपनी पीठ पर कैसे लाया ?

लघुपतनक-एक हिरण्यक नाम का चूहा मेरा अभिन्न मित्र है। बड़ा गुणी है यह; फिर भी किसी दुःख से दुःखी होकर मेरे साथ यहाँ आ गया है।

इसे अपने देश से वैराग्य हो गया है।

मन्थरक-वैराग्य का कारण!

लघुपतनक-यह बात मैंने भी पूछी थी। इसने कहा था, वहीं चलकर बताऊँगा।