जय गुरु देव
समय का जगाया हुआ नाम जयगुरुदेव मुसीबत में बोलने से जान माल की रक्षा होगी ।
परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज, उज्जैन (मध्य प्रदेश)
परमात्मा से आत्मा के मध्य (Paramaatma Se Aatma Ke Madhy)

परमात्मा से आत्मा के मध्य - between God and soul

एक राजा था। वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने इष्ट देव को बडी श्रद्धा से पूजा-पाठ ओर याद करता था। एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा– “राजन् मे तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो तुम्हारी कोई इच्छा हॆ?”

“यह तो सम्भव नहीं हॆ।” — भगवान ने राजा को समझाया। परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान से जिद्द् करने लगा। आखिरकार भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पडा ओर वे बोले,–“ठीक हॆ, कल तुम अपनी सारी प्रजा को उस पहाडी के पास लाना। में पहाडी के ऊपर से सबको दर्शन दूँगा।”

राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ ओर भगवान को धन्यवाद दिया। अगले दिन सारे नगर मे ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाडी के नीचे मेरे साथ पहुँचे, वहाँ भगवान आप सबको दर्शन देगें ।

दुसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा ओर स्वजनों को साथ लेकर पहाडी कि ओर चलने लगा। चलते-चलते रास्ते मे एक स्थान पर तांबे कि सिक्कों का पहाड देखा। प्रजा मे से कुछ एक उस ओर भागने लगे। तब ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे, क्योकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो, इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो।

परन्तु लोभ-लालच मे वशीभूत कुछ एक प्रजा तांबे कि सिक्कों वाली पहाडी कि ओर भाग गयी ओर सिक्कों कि गठरी बनाकर अपनी घर कि ओर चलने लगे। वे मन हि मन सोच रहे थे, पहले इन सिक्कों को समेट ले, भगवान से तो फिर कभी भी मिल लेंगे।

राजा खिन्न मन से आगे बढे। कुछ दुर चलने पर चांदी कि सिक्कों का चमचमाता पहाड दिखाई दिया। इस वार भी बचे हुये प्रजा में से कुछ लोग, उस ओर भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बनाकर अपनी घर कि ओर चलने लगे। उनके मन मे भी विचार चल रहा था कि, ऎसा मॊका बार-बार नहीं मिलता हॆ। ओर चांदी के इतने सारे सिक्के फिर मिले न मिले, भगवान तो फिर कभी ओर मिल जायेगें ।

इसी प्रकार कुछ दुर ओर चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड नजर आया। अब तो प्रजाजनो मे बचे हुये सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे। वे भी दूसरों कि तरह सिक्कों कि गठरी लाद कर अपने-अपने घरों कि ओर चल दिये।

अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे। राजा रानी से कहने लगे– “देखो कितने लोभी ये लोग। भगवान से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हॆ। भगवान के सामने सारी दुनियां कि धन- दॊलत क्या चीज हॆ?” सही बात हॆ– रानी ने राजा कि बात को समर्थ किया ओर वह आगे बढने लगे।

कुछ दुर चलने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगी आभा बिखरता हीरों का पहाड हॆ। अब तो रानी से रहा नहीं गया, हीरों कि आर्कषण से वह भी दॊड पडी, ओर हीरों कि गठरी बनाने लगी। फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लु मे भी बांधने लगी। रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये, परंतु हीरों का तृष्णा अभी भी नहीं मिटी। यह देख राजा को अत्यन्त ग्लानि और विरक्ति हुई। बढे दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढते गये।

वहाँ सचमुच भगवान खडे उसका इन्तजार कर रहे थे।राजा को देखते हि भगवान मुसकुराये ओर पुछा — “कहाँ हॆ तुम्हारी प्रजा ओर तुम्हारे प्रियजन। मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेकरारी से उन सबका इन्तजार कर रहा हुं।”

राजा ने शर्म ओर आत्म-ग्लानि से अपना सर झुका दिया। तब भगवान ने राजा को समझाया– “राजन जो लोग भॊतिक सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हॆ, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती ओर वह मेरे स्नेह तथा आर्शिवाद से भी वंचित रह जाते हॆ।”

सार…इसी प्रकार जब हम भी सुमिरन भजन करते है,तब काल हमें अनेक प्रकार के प्रलोभन देता है।हम उसमें फंस जाये जिससे हमारी जीवात्मा अपने निजधाम ना जा सके।गुरुमहाराज ने इसीलिए बताया की जब भी हमें मौका मिले सत्संग सुनते रहना चहिये उससे भी काल का असर कम हो जाता है।