साधु मातुल! गीतेन मया प्रोक्तोऽपि न स्थितः।
अपूर्वोऽयं मणिर्बद्धः सप्राप्तं गीतलक्षणम्॥
मित्र की सलाह मानो।
एक गाँव में उद्धत नाम का गधा रहता था।
दिन में धोबी का भार ढोने के बाद रात को वह स्वेच्छा से खेतों में घूमा करता था।
सुबह होने पर वह स्वयं धोबी के पास आ जाता था।
रात को खेतों में घूमते-घूमते उसकी जान-पहचान एक गीदड़ से हो गई।
गीदड़ मैत्री करने में बड़े चतुर होते हैं। गधे के साथ गीदड़ भी खेतों में जाने लगा।
खेत की बाड़ को तोड़कर गधा अन्दर चला जाता और वहाँ गीदड़ के साथ मिलकर कोमल-कोमल ककड़ियाँ खाकर सुबह अपने घर आ जाता था।
एक दिन गधा उमंग में आ गया। चाँदनी रात थी।
दूर तक खेत लहलहा रहे थे। गधे ने कहा-मित्र! आज कितनी निर्मल चाँदनी खिली है।
जी चाहता है, आज खूब गीत गाऊँ। मुझे सब राग-रागिनियाँ आती हैं। तुझे जो गीत पसन्द हो, वही गाऊँगा। भला, कौन सा गाऊँ, तू ही बता।
गीदड़ ने कहा-मामा! इन बातों को रहने दो। क्यों अनर्थ बखेरते हो ?
अपनी मुसीबत आप बुलाने से क्या लाभ ?
शायद, तुम भूल गए कि हम चोरी से खेत में आए हैं। चोर को तो खाँसना भी मना है, और तुम ऊँचे स्वर से राग-रागिनी गाने की सोच रहे हो।
और शायद तुम यह भी ।
भूल गए कि तुम्हारा स्वर मधुर नहीं है। तुम्हारी शंखध्वनि दूर-दूर तक जाएगी।
इन खेतों के बाहर रखवाले सो रहे हैं। वे जाग गए तो तुम्हारी हड्डियाँ तोड़ देंगे।
कल्याण चाहते हो तो इन उमंगों को भूल जाओ; आनन्दपूर्वक अमृत जैसी मीठी ककड़ियों से पेट भरो।
संगीत का व्यसन तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है।
गीदड़ की बात सुनकर गधे ने उत्तर दिया-मित्र! तुम वनचर हो, जंगलों में रहते हो, इसीलिए संगीत-सुधा का रसास्वादन तुमने नहीं किया है।
तभी तुम ऐसी बात कह रहे हो।
गीदड़ ने कहा-मामा! तुम्हारी बात ही ठीक सही, लेकिन तुम संगीत तो नहीं जानते, केवल गले से ढींचू-ढींचू करना ही जानते हो।
गधे को गीदड़ की बात पर क्रोध तो बहुत आया किन्तु क्रोध को पीते हुए गधा बोला-गीदड़! यदि मुझे संगीत विद्या का ज्ञान नहीं तो किसको होगा ?
मैं तीनों ग्रामों, सातों स्वरों, इक्कीस मूर्छनाओं, उनचास तालों, तीनों लयों और तीन मात्राओं के भेदों को जानता हूँ।
राग में तीन यति विराम होते हैं, नौ रस होते हैं।
छत्तीस राग-रागनियों का मैं पण्डित हूँ। चालीस तरह के संचारी-व्यभिचारी भावों को भी मैं जानता हूँ।
तब भी तू मुझे रागी नहीं मानता। कारण, कि तू स्वयं राग-विद्या से अनभिज्ञ है।
गीदड़ ने कहा-मामा! यदि यही बात है तो मैं तुझे नहीं रोदूंगा।
मैं खेत के दरवाजे पर खड़ा चौकीदारी करता हूँ, तू जैसा जी चाहे, गाना गा।
गीदड़ के जाने के बाद गधे ने अपना अलाप शुरू कर दिया।
उसे सुनकर खेत के रखवाले दाँत पीसते हुए भागे आए।
वहाँ आकर उन्होंने गधे को लाठियों से मार-मारकर ज़मीन पर गिरा दिया।
उन्होंने उसके गले में साँकली भी बाँध दी। गधा भी थोड़ी देर कष्ट में तड़पने के बाद उठ बैठा।
गधे का स्वभाव है कि वह बहुत जल्दी कष्ट की बात भूल जाता है। लाठियों की मार की याद मुहूर्त-भर ही उसे सताती है।
गधे ने थोड़ी देर में साँकली तुड़ा ली और भागना शुरू कर दिया।
गीदड़ भी उस समय दूर खड़ा तमाशा देख रहा था। मुसकराते हुए वह गधे से बोला-क्यों मामा!
मेरे मना करते-करते भी तुमने अलापना शुरू कर दिया! इसीलिए तुम्हें यह दण्ड मिला।
मित्रों की सलाह का ऐसा तिरस्कार करना उचित नहीं है।
चक्रधर ने इस कहानी को सुनने के बाद स्वर्णसिद्धि से कहा-मित्र!
बात तो सच है। जिसके पास न स्वयं बुद्धि है और न जो मित्र की सलाह मानता है, वह मन्थरक नाम के जुलाहे की तरह तबाह हो जाता है। |