जय गुरु देव
समय का जगाया हुआ नाम जयगुरुदेव मुसीबत में बोलने से जान माल की रक्षा होगी ।
परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज, उज्जैन (मध्य प्रदेश)
स्वार्थ सिद्धि परम लक्ष्य (Svaarth Siddhi Param Lakshy)

अपमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः। स्वार्थमभ्युद्धरेप्राज्ञः स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता॥

बुद्धिमानी इसी में है कि स्वार्थ सिद्धि के लिए मानापमान की चिन्ता छोड़ी जाए।

वरुण पर्वत के पास एक जंगल में मन्दविष नाम का बूढ़ा साँप रहता था।

उसे बहुत दिनों से कुछ खाने को नहीं मिला था।

बहुत भागदौड़ किए बिना खाने का उसने यह उपाय किया कि वह एक तालाब के पास चला गया।

उसमें सैकड़ों मेढक रहते थे। तालाब के किनारे जाकर वह बहुत उदास और विरक्त-सा मुख बनाकर बैठ गया।

कुछ देर बाद एक मेढक ने तालाब से निकलकर पूछा-मामा!

क्या बात है, आज कुछ खाते-पीते नहीं हो ? इतने उदास-से क्यों हो ?

साँप ने उत्तर दिया-मित्र! मेरे उदास होने का विशेष कारण है।

मेरे यहाँ आने का भी वही कारण है ।

मेंढक ने जब कारण पूछा तो साँप ने झूठमूठ यह कहानी बना ली।

वह बोला-बात यह है कि आज सुबह मैं एक मेढक को मारने के लिए जब आगे बढ़ा तो मेढ़क वहाँ से उछलकर कुछ ब्राह्मणों के बीच में चला गया।

मैं भी उसके पीछे-पीछे वहाँ गया। वहाँ जाकर ब्राह्मण-पुत्र का पैर मेरे शरीर पर पड़ गया।

तब मैंने उसे डस लिया। वह ब्राह्मण-पुत्र वहीं मर गया। उसके पिता ब्राह्मण ने मुझे क्रोध से जलते हुए यह शाप दिया कि तुझे मेढकों का वाहन बनकर उनकी सैर करानी होगी।

तेरी सेवा से प्रसन्न होकर जो कुछ वे तुझे देंगे, वही तेरा आहार होगा।

स्वतन्त्र रूप से तू कुछ भी नहीं खा सकेगा।

यहाँ पर मैं तुम्हारा वाहन बनकर ही आया हूँ।

उस मेढक ने यह बात अपने साथी मेढकों को भी कह दी। सब मेढक बड़े खुश हुए।

उन्होंने इसका वृत्तान्त अपने राजा जलपाद को भी सुनाया।

जलपाद ने अपने मन्त्रियों से सलाह करके यह निश्चय किया कि साँप का वाहक बनाकर उसकी सेवा से लाभ उठाया जाए।

जलपाद के साथ सभी मेढक साँप की पीठ पर सवार हो गए।

जिनको उसकी पीठ पर स्थान नहीं मिला उन्होंने साँप के पीछे गाड़ी लगाकर उसकी सवार की।

साँप पहले तो बड़ी तेज़ी से दौड़ा, बाद में उसकी चाल धीमी पड़ गई।

जलपाद के पूछने पर उसने इसका कारण यह बतलाया-आज भोजन न मिलने से मेरी शक्ति क्षीण हो गई है, कदम नहीं उठते।

यह सुनकर जलपाद ने उसे छोटे-छोटे मेढकों को खाने की आज्ञा दे दी।

साँप ने कहा-मेढक महाराज! आपकी सेवा से आए पुरस्कार को भोगकर ही मेरी तृप्ति होगी, यही ब्राह्मण का अभिशाप है।

इसलिए आपकी आज्ञा से मैं बहुत उपकृत हुआ हूँ।

जलपाद साँप की बात से बहुत प्रसन्न हुआ।

थोड़ी देर बाद एक और काला साँप उधर से गुज़रा।

उसने मेढकों को साँप की सवारी करते देखा तो आश्चर्य में डूब गया।

आश्चर्यान्वित होकर वह मन्दविष से बोला-भाई! जो हमारा भोजन है, उसे ही तुम पीठ पर सवारी करा रहे हो!

यह तो स्वभाव-विरुद्ध बात है-मन्दविष ने उत्तर दिया-मित्र! यह बात मैं भी जानता हूँ, किन्तु समय की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

मन्दविष ने अनुकूल अवसर पाकर धीरे-धीरे सब मेढकों को खा लिया।

मेढकों का वंशनाश ही हो गया।

वायसराय मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को धन्यवाद देते हुए कहा-मित्र, आप बड़े पुरुषार्थी और दूरदर्शी हैं।

एक कार्य को प्रारम्भ करके उसे अन्त तक निभाने की आपकी क्षमता अनुपम है।

संसार में कई तरह के लोग हैं।

नीचतम प्रवृत्ति के वे हैं जो विघ्नभय से किसी कार्य का आरम्भ नहीं करते, मध्यम वे हैं जो विघ्नभय से हर काम को बीच में छोड़ देते हैं, किन्तु उत्कृष्ट वही है जो सैकड़ों विघ्नों के होते हुए भी आरम्भ किए गए काम को बीच में नहीं छोड़ते।

आपने मेरे शत्रुओं का समूल नाश करके उत्तम कार्य किया है।

स्थिरजीवी ने उत्तर दिया-महाराज मैंने अपना धर्म पालन किया। दैव ने आपका साथ दिया।

पुरुषार्थ बहुत बड़ी वस्तु है, किन्तु दैव अनुकूल न हो तो पुरुषार्थ भी फलित नहीं होता।

आपको अपना राज्य मिल गया। किन्तु स्मरण रखिए राज्य क्षणस्थाई होते हैं।

बड़े-बड़े विशाल राज्य क्षणों में बनते और मिटते रहते हैं। शाम के रंगीन बादलों की तरह उनकी आभा भी क्षणजी वी होती है।

इसलिए राज्य के मद में आकर अन्याय नहीं करना, और न्याय से प्रजा का पालन करना।

राजा प्रजा का स्वामी नहीं, सेवक होता है। इसके बाद स्थिरजीवी की सहायता से मेघवर्ण बहुत वर्षों तक सूखपूर्वक राज्य करता रहा।