प्रथम कल्प के प्रारंभ में स्वयभू मनु के प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम से विख्यात दो पुत्र हुए। इनमें प्रियव्रत बड़े ही तपॊनिष्ठ, ज्ञानी, याज्ञिक तथा दान-दक्षिणा देने में अप्रतिम थे। उन्होंने सप्त द्वीपों में अपना शासन स्थापित किया और भरत आदि अपने पुत्रों को वहाँ का अधिपति बनाया। तदुपरांत वे स्वयं विशालानगरी (बदरिकाश्रम) में तपस्या करने लगे ।
उनकी पतिव्रता तथा तपोनिष्ठता से प्रभावित होकर देवर्षि नारद एक दिन आकाश मार्ग से उनसे मिलने आए। उन्हे देखकर प्रियव्रत ने उनका पूर्ण निष्ठा से यथोचित स्वागत-सत्कार एवं अर्चन-पूजन किया । तदुपरांत दोनो के मध्य पर्याप्त समय तक धर्म-ज्ञान, योग आदि विषयों पर विस्तृत वार्ता होती रही । अंत मे प्रियव्रत ने नारद जी से पूछा - 'देवर्षि आप सर्वज्ञ हैं तथा स्थान-स्थान पर भ्रमण करते रहते हैं । कृपया यह बताइए कि आपने किसी काल में कोई विचित्र या अद्भुत घटना देखी है ।"
कुछ क्षण चुप रहकर नारद जी बोले - 'राजन, संयोग की बात है कि कल ही जब मैं श्वेत द्वीप गया तो एक अति अद्भुत घटना घटित हुई, उसे मैं आपको सुनाता हूँ । सुनिये - श्वेत द्वीप मे एक सुन्दर सरोवर है । जब मैं उस सरोवर के निकट पहुंँचा तो मैने अनेक खिले हुए कमल-पुष्प उसमे देखे । उस सरोवर के तट पर एक अति रुपवती एवं दीर्घनयना सुन्दरी चुपचाप खड़ी थी । उसे वहाँ देखकर मुझे बहुत विस्मय हुआ और मैने उसके निकट पहुँचकर उसका परिचय जानना चाहा ।
इस पर उस सुन्दरी ने कोई उत्तर तो नहीं दिया किन्तु उसने मेरी ओर जिस प्रकार देखा उससे मुझे लगा कि शास्त्र, योग, वेद-वेदांग आदि का मेरा सम्पुर्ण ज्ञान लुप्त हो गया है । मेरी समझ मे नही आया कि यह सब क्या हो रहा है अतः मैने उस सुन्दरी की शरण ग्रहण की । उस स्थिति मे मैने उसके शरीर मे एक अद्भुत एवं दिव्य लोकायुक्त तेजस्वी पुरुष को विद्यमान देखा । उस पुरुष के शरीर मे वैसे ही एक अन्य पुरुष को और उस दूसरे पुरुष के शरीर मे तीसरे दिव्य पुरुष को देखा । कुछ क्षण उपरान्त वे सब लुप्त हो गए ।
इस अदभुत दृश्य ने मुझे विस्मय-विमूढ कर दिया। तब मैंने उस दिव्यांगना से प्रश्न किया-सुभगे, मुझे यह बतलाओं कि अकस्मात ही मेरा सम्पूर्ण ज्ञान लुप्त क्यों हो गया है? इस पर वह बोली कि मैं वेदों की जननी सावित्री हूँ। तुम मुझे नहीं पहचान सके। अतः मैंने तुम्हारा सब ज्ञान अपहृत कर लिया है। मेरे शरीर में प्रकट होने वाले तीन पुरुष तीन वेद थे।
प्रथम ऋग्वेद-स्वयं भगवान के रूप में है। यह वेद अग्निमय है तथा इसका समस्वर पाठ करने से सभी अधादि भस्म हो जाते हैं। नारायण रूप ऋग्वेद से उत्पन्न दूसरे पुरुष यजुर्वेद हैं जो साक्षात ब्रह्मा हैं। तृतीय सामवेद रूप भगवान शंकर हैं तथा स्मरण करने मात्र से शीघ्र ही सुर्यवत सम्पूर्ण पाप-तिमिर को नष्ट कर देते हैं।
सावित्री देवी ने यह सब बताने के उपरांत नारद जी को संबोधित करते हुए कहा-'हे महर्षि! मैंने यह सम्पूर्ण वृत्तांत केवल इसलिए सुनाया है क्योंकि तुम, ब्रह्मा के पुत्रों में अतिश्रेष्ठ एवं परमज्ञानी हो। अब अपने ज्ञान को पुनः प्राप्त करने हेतु तुम इस वेद-सरोवर में स्नान करो। इस स्नान से तुम्हें अपने पूर्वजन्म की स्मृति भी हो जाएगी। नारद जी बोले-हे राजन! इतना कहकर वह सुन्दरी वहीं अंतर्धान हो गई और मैं स्नानादि से निवृत होकर यहाँ आ गया हूँ।
नारद जी से यह वृतांत सुनकर प्रियव्रत ने विस्मयाभिभूत होकर कहा-'देवर्षि! आपका यह वृत्तांत सचमुच अति अदभुत है। अतः मेरे मन में आपके पूर्व जीवन का वृत्तांत जानने की इच्छा भी जाग्रत हो गई है। आप मुझ पर परम कृपालु रहे हैं, अतः मेरी यह जिज्ञासा भी शांत कीजिए।'
नारद जी ने कहा-'हे महाभागा! उस वेद सरोवर में स्नान करते ही मुझे अपने ज्ञान की पुनः प्राप्ति तो हुई ही, साथ ही अपने विगत जन्मों की स्मृतियां भी जाग्रत हो गई । आपकी जिज्ञासा शांत करने हेतु मैं अपने पूर्व जीवन के विषय में आपको बतलाता हूँ।
हे राजन! द्वितीय सत्ययुग में, मैं मानव-योनि में जन्मा था। उस समय मेरा नाम सारस्वत था तथा मैं एक सुसंपन्न ब्राह्मण था। मैं अवंती नामक नगरी में परिजनों के साथ सुख-शांति से जीवन यापन करता था। एक समय मैं एकांत में बैठा हुआ था कि तभी मेरे मन में वैराग्य भाव का उदय हुआ। मैंने सोचा कि यह संसार तो व्यर्थ एवं निस्सार तथा नाशवान है।
अतः मुझे अपनी सम्पूर्ण सम्पदा पुत्रों को सौंप कर तपस्या में लग जाना चाहिए। इस विचार के औचित्य-अनौचित्य पर विचार करने हेतु मैं भगवान की शरण में गया और उनकी प्रेरणा से यज्ञ, श्राद्ध तथा दान कर्मों में प्रवृत्त हो सबको संतुष्ट करके तथा सब प्रकार से निश्चिंत होकर मैं पुष्कर तीर्थ में[जो उस समय सारस्वत सरोवर के नाम से प्रसिद्ध था ] तपस्या करने लगा।
मैं निरंतर नारायण-मंत्र तथा ब्रह्मपार स्तोत्र का जाप करता था। मेरी इस भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीहरि ने मुझे साक्षात दर्शन दिए और मुझसे वर मांगने को कहा। मैंने कहा-'हे प्रभो! आप मुझे अपने शरीर में विलय करने की कृपा कीजिए। इस पर वे बोले-अभी तुम्हें शरीर त्याग करने की आवश्यकता नहीं है।
अतः मुझमें विलय होने की इच्छा मत करो। तुम्हारी भक्ति तथा इससे पूर्व पितरों को जल[नार ] अर्पित करने से मैं तुम पर परम प्रसन्न हूँ। अतः वरदान देता हूँ कि तुम नारद नाम से विख्यात होगे। यह कहकर सनातन ईश अंतर्धान हो गए तथा मैं यथापूर्व भक्ति-भाव से साथ उपासना में लगा रहा और समय पूर्ण होने पर शरीर त्याग कर ब्रह्मलोक का अधिकारी बना।
ब्रह्मा जी के प्रथम दिवस का शुभारंभ होने पर मैंने भी उनके मानस-पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण किया और नारद नाम पाया। अन्य देवगण भी उसी दिन उत्पन्न हुए। |