जिस समय दिल्ली की गद्दी पर ओरंगजेब बैठा था उस समय में एक सूफी फकीर सरमद अपनी न फकीरी मस्ती में दिल्ली की सड़कों पर आया जाया करते थे। जब॑ और जहां उनकी इच्छा हुई वहीं वो बैठ जाते। लोग उन्हें देखते तो कोई हंसता कोई कुछ फिकरे कसता कितु लोगों के कहने सुनने का कोई असर नहीं था। औरगजेब के दरबारियों ने औरंगजेब से मस्त फकीर की चर्चा की । दरबारियों नें कहा जहा पनाह वह इतना गरीब है कि उसके पास कपड़े भी ठीक नहीं है और वह ऐसे ही पड़ा रहता है।
औरंगजेब ने आदेश दिया कि उस गरीब फकीर को कपड़े दिये जायें। दरबार का एक कर्मचारी वस्त्र लेकर सरमद साहब के पास पहुंचा उस समय वे मोती मजिस्द के फाटक के बाहर बैठे हुए थे। दरबारो ने जाकर कहा-ऐ फकीर! इन कपड़ों को कबूल करो। शंहशाह औरंगजेब ने तुमहारी मुफलिसीं पर रहम खाकर इसे भेजा | सरमद साहब सुनी अनुसनी कर गए । दरबारी ने पुनः अपने वाक्य को दोहराया। सरमद ने कहा ले जा इस कपड़े को औरंगजेब को दे दे उससे कहो कि पहले अपनी मुफलिसी दूर करे फिर रहम करेगा।
दरबारी वापस लौट गया औरंगजेब का कोध प्रसिद्ध था। सभी जानते थे कि उसके तलवार की धार बराबर पैनी रहती है। दरबारी डर गया कि कहीं फकीर की बात सुनकर औरंगजेब कोधित न हो उठें। वह दरबारी वस्त्रों को लेकर दरबार हाजिर हुआ औरंगजेब ने पूछा फ़क़ीर ने कपडे नहीं लिए उत्तर मिला नहीं। क्या कहा उसने। औरंगजेब का दूसरा प्रश्न था। दरबारी ने कहा की लेने से इंकार कर दिया । फकीर की बात कहने का साहस वह न कर सका । औरंगजेब ने मन में सोचा कि अजीब फकीर है नंगे रहना पंसद करता हैं, कितु कपड़ें नहीं लेता |
उसने निश्चय किया वह खुद जाकर उसे कपड़े देगा । वह यह जानता था कि फकीर निडर होते हैं जो और चाहें वह कर भी सकते हैं। दूसरे दिन औरंगजेब गया । मोती मजिस्द के पास ही सरमद लेटे हुए थे। औरंगजेब ने कहा फकीर साहब तुमने कपड़ों को लोटा दिया ?
मै हिन्दुस्तान का बादशाह तुम्हारी खितमत मै आया हूँ कपडे ले लो बगल में इशारा करते हुए कहा-औरंगंजेब! पहले इसको ढक दे जो मुझसे भी अधिकं शर्मनाक है। औरंगजेब सूफी फकीर सरमद की बात समझ नहीं सका। उसने चादर जमीन पर फैला दिया फिर बोला और कपड़े न लो। अपने ऊपर चादर ही डाल लो। फकीर ने कहा कि बादशाह तू लौट जा। चादर के नीचे तूने क्या ढंका है उसे देख नहीं सकेगा।
औरंगजेब के लिए फ़क़ीर की बातें एक पहेली बन रही थे वह कुछ न समझा तो उसका क्रोध भड़कने लगा। उसने गुस्से मै कहा सरमद तुझे चादर ओढनी ही पड़ेगी | तू नहीं समझ रहा है कि तेरे सामने बादशाह औरंगजेब खड़ा हैं। सरदम- मुस्करा कर बोले-तू नहीं मानता है तो उठा ले चादर और मुझे ढक दे । औरंगजेब ने झुककर ज्यों ही चादर उठाया तो एका एक घबड़ा गया। चादर उठाते ही उसे लगा कि दारा की भोली आंखें उसे घूर रही हैं शुजा और मुराद का खून से लंथपथ धड़-तड़्प रहा है।
शाहजहा की आह उठकर उसके कानों को परेशान करने लगी । आखिर में घबराकर उसने चादर छोड़ दिया। सरमद ने कहा बता दो तेरे पापों को ढकना अधिक जरूरी है या इस शरीर को औरंगजेब की बहुत बड़ी पराजय हुई थी वह चुपचाप किला वापस लौट आया | कुछ दिन तो उसे वह भयानक दृश्य और आवाजें बेचैन करती रहीं।
अपने ही कर्मों से और अंदर की आवाज से औरंगजेब अंतिम दिनों में अपनी डायरी लिख रहा था तो उसने यह भी दि कि मैंने जीवन में बहुत से गुनाह किए हैं कितु उन सब में सबसे बड़े दो गुनाह है जिसके लिए मैं अपने को कभी माफ़ नहीं करूँगा पहला शाहजहाँ की कैद दूसरा सरमद का क़त्ल।
जय गुरु देव
यह मैटर अतीत के आईने में किताब से लिया गया है
Baba Jaigurudev Ji Maharaj told about Aurangzeb and Sufi Fakir Sarmad
At the time when Aurangzeb was sitting on the throne of Delhi, a Sufi fakir Sarmad used to come to the streets of Delhi in his fakir fun. He would sit wherever and whenever he wished. Whenever people saw him, some would laugh, some would get worried, but there was no effect of listening to what people said. Aurangzeb's courtiers discussed Mast Fakir with Aurangzeb. The courtiers said that Jahan Panah is so poor that he does not even have proper clothes and he remains lying like this.
Aurangzeb ordered that the poor fakir be given clothes. An employee of the court came to Sarmad Saheb with clothes, at that time he was sitting outside the gate of Moti Masjid. The courtiers went and said – O Fakir! Accept these clothes. Emperor Aurangzeb took pity on your poverty and sent him. Sarmad Saheb listened and followed. The courtier repeated his sentence again. Sarmad said, take this cloth and give it to Aurangzeb and tell him to first remove his poverty and then he will have mercy.
The courtier returned. Aurangzeb's anger was famous. Everyone knew that the edge of his sword remained always sharp. The courtier was afraid that Aurangzeb might get angry after listening to the fakir. He appeared in the court with the court clothes. Aurangzeb asked whether the fakir did not take the clothes, he did not get the answer. what did he say. Aurangzeb had another question. The courtier said that he refused to take it. He could not muster the courage to speak to the fakir. Aurangzeb thought in his mind that he is a strange fakir, he likes to remain naked, but does not take clothes.
He decided that he would personally go and give her clothes. He knew that fakirs are fearless and can do whatever they want. Aurangzeb went the next day. Sarmad was lying near Moti Masjid. Aurangzeb said, Fakir Saheb, have you returned the clothes?
I am the king of India, I have come at your request, take your clothes and said while pointing to the side - Aurangzeb! First cover this one who is more shameful than me. Aurangzeb could not understand the words of Sufi fakir Sarmad. He spread the sheet on the ground and then said don't take any more clothes. Just put a sheet over yourself. The fakir said, King, please return. You will not be able to see what you have covered under the sheet.
The fakir's words were becoming a puzzle for Aurangzeb. When he did not understand anything, his anger began to flare up. She said angrily, Sarmad, you will have to cover yourself with a sheet. You are not understanding that Emperor Aurangzeb is standing in front of you. Sardam smiled and said – If you don't agree then pick up the sheet and cover me. As soon as Aurangzeb bent down and picked up the sheet, he suddenly got scared. As soon as she lifted the sheet, she felt that Dara's innocent eyes were staring at her, Shuja and Murad's blood soaked torso was writhing in agony.
Shahjaha's sighs started disturbing his ears. At last he got scared and left the sheet. Sarmad said, tell me, is it more important to cover your sins or this body? Aurangzeb had suffered a huge defeat. He silently returned to the fort. For some days, those terrible sights and sounds kept troubling him.
When Aurangzeb was writing his diary in his last days from his own actions and from his inner voice, he also said that I have committed many sins in my life but the biggest of them all are two sins for which I will never forgive myself. First was the imprisonment of Shahjahan and second was the murder of Sarmad.
Jai Gurudev
This Matter is taken from the book In the Mirror of the Past
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